पाश
और सुरजीत पातर सन् 1970 के बाद की पंजाबी कविता के दो सर्वप्रमुख
हस्ताक्षर हैं। दोनों ही कवियों ने पंजाबी कविता में अपनी मौलिक और विशिष्ट
पहचान बनाई। पातर की कविताओं में पंजाब की मिट्टी की गंध है। वे एक व्यापक
संवेदना के कवि हैं। कहा जाता है कि पाश और पातर के बिना भारतीय कविता के
आधुनिक परिदृश्य की कल्पना नहीं की जा सकती। पाश और पातर एक ही दौर के कवि
हैं, पर पाश की कविता में मार्क्सवादी प्रभाव और नक्सलवादी आन्दोलन से उभरी
नई संवेदना साफ दिखाई पड़ती है।
पातर
भी सामाजिक सरोकारों के कवि हैं, पर उनकी कविताओं में राजनीतिक स्वर उस
रूप में सामने नहीं आता, जैसे उस दौर के अन्य कवियों में। एक साक्षात्कार
में पातर ने कहा है, 'मार्क्सवाद और नक्सलवाद के राजनीतिक पक्ष के बारे
में मेरी कविताओं में सीधे कोई नारा शायद न मिले, पर यह भी सच है कि इस
विचार के मानवीय पक्ष, नवयुवकों की त्याग भावना, विचार के आधार पर मर-मिटने
का जज्बा व गहरे और उष्मा मानवीय संबंधों ने मुझे भीतर तक प्रभावित किया
है।'
पातर
पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के छात्र थे, जो नक्सल गतिविधियों का
केंद्र था और वहां पंजाब स्टूडेंट्स यूनियन में उनके कई मित्र सक्रिय थे।
ऐसे में, यह संभव नहीं था कि इस विचारधारा के प्रभाव से वे दूर रहते, पर
उनकी कविताओं में पाश की तरह राजनीतिक स्वर बहुत खुला नहीं है। मार्क्सवाद
के राजनीतिक दर्शन का प्रभाव उनके सौन्दर्यबोध में घुल-मिल गया है, जो उनकी
कविता को एक गहरी मानवीय दृष्टि से ओतप्रोत करता है।
पातर
की कविता में व्यथा तो है, पर उससे उबरने की ताकत भी वहां मिलती है। पातर
की कविताओं, गीतों और ग़ज़लों में ज़िन्दगी का बहुत ही करीब से स्पर्श
मिलता है, जो पाठक को एक ऐसे संसार में लेकर जाता है, जहां उसे अपने दुखों
से उबरने के लिए धैर्य और संतोष मिलता है। महज एक आक्रोश की अभिव्यक्ति से
अलग पातर की कविता पाठक को अंधेरों की दुनिया में एक दिलासा देती है, वह
कविता के स्पर्श को महसूस कर सकता है। कविता उलझे-उदास मन को इस तरह थाम
लेती है, जैसे मिट्टी पौधे की जड़ को। बिना किसी शोर के पातर की कविता
व्यथित मन को सहारा देती है।
इस
विशिष्टता के बारे में पातर स्वयं कहते हैं कि वे जिस माहौल में पले-बढ़े,
उसकी फिजा में ही गुरुबानी रची-बसी थी। गुरुबानी की वह अमरित धारा पातर की
कविताओं में है। पातर कहते हैं,'जब मैं दुखी होता हूं तो लफ़्ज़ों की दरगाह में चला जाता हूं। वहां मेरा दुख शक्ति और ज्ञान में बदल जाता है।'
पातर
की कविताओं से गुजरते हुए यह अवश्य याद रखना चाहिए कि पातर के लिए रचना
कर्म एक इबादत की तरह है, जो मनुष्यता की गहरी आवाज बन जाती है। पातर की
कविताओं में भक्ति और सूफी धारा का सहज प्रभाव मिलता है। पातर खुद मानते
हैं कि शुरू में उन पर बाबा बलवंत का खासा प्रभाव था। वे ग़ालिब और इक़बाल
की शायरी से भी खुद को प्रेरित बताते हैं। पंजाबी साहित्यकारों में हरभजन,
सोहन सिंह के साथ शिव कुमार बटालवी और मोहन सिंह का प्रभाव भी स्वीकार करते
हैं। उस दौर के अन्य प्रमुख कवियों की तरह पातर खुद को किसी राजनीतिक
मतवाद से बंधा नहीं पाते। वे कहते हैं - "मुझमें नेहरू भी बोलता है, माओ
भी, कृष्ण भी बोलता है, कामू भी, वॉयस ऑफ अमेरिका भी बोलता है, बीबीसी भी,
मुझमें बहुत कुछ बोलता है, नहीं बोलता है तो सिर्फ मैं ही नहीं बोलता।"
कवि
की इस बात से समझा जा सकता है कि उनके लिए राजनीतिक विचारधारा वो मायने
नहीं रखती, जितना कि मानवतावाद, जो इतिहास की शुरुआत के साथ ही मनुष्य का
आदर्श बना हुआ है। लेकिन ऐसी बात नहीं है कि पातर अपने दौर की राजनीति से
अछूते रहते हैं। इमरजेंसी और पंजाब में आतंकवाद के दौर से देश का शायद ही
कोई लेखक अलग-थलग रह पाया हो। पातर ने इमरजेंसी और आतंकवाद को लोकतांत्रिक
समाज पर एक धब्बा बताया था।
उन्होंने इमरजेंसी पर लिखा था - "कुछ कहा तो अंधेरा कैसे सहन करेगा, चुप रहा तो शमांदान क्या कहेंगे।जीत की मौत इस रात हो गई, तो मेरे यार इस तरह जीना सहन कैसे करेंगे।" आतंकवाद पर भी उन्होंने काफी लिखा और अपनी एक कविता पाश को समर्पित की। पातर ने लिखा है - "इस अदालत में बंदे वृक्ष हो गए, फैसले सुनते-सुनते सूख गए।" और "जद तक उह लाशां गिणदें आपा वोटां गिणिए।"
पातर की कई कविताओं में सामाजिक विसंगतियों पर, शोषण के तंत्र पर और
बाजारवाद पर तल्ख स्वर सामने आते हैं। पातर आर्थिक-सामाजिक समानता के
पक्षधर हैं। लेकिन उनका मानना है कि कविता में राजनीतिक बयानबाजी सही नहीं,
न ही कविता के माध्यम से उपदेश दिया जाना चाहिए। पातर का मानना है कि
लेखकों-कवियों को अपनी परम्परा से जुड़ना चाहिए। वे कहते हैं कि जैसे आज के
कवि को ब्रेख्त के बारे में पता है तो उसे बुल्लेशाह और वारिसशाह के बारे
में भी पता होना चाहिए। पातर स्वयं को ब्रेख्त और लोर्का से गहरे प्रभावित
बताते हैं, पर उनकी कविता में जो लोक तत्व है, वह अपनी मिट्टी और लोक
परम्परा से गहराई से जुड़ाव को दिखाता है।
1944 में जन्मे कवि का पहला कविता संग्रह 1978 में 'हवा विच लिखे हर्फ'
प्रकाशित हुआ था। 2009 में 'लफ़्ज़ों की दरगाह' कविता संग्रह के लिए पातर
को सरस्वती सम्मान मिला। पातर पंजाबी के तीसरे लेखक और दूसरे कवि हैं,
जिन्हें सरस्वती सम्मान से नवाजा गया। इससे पहले डॉ. दलीप कौर टिवाणा
(उपन्यास) और डा. हरभजन सिंह (कविता) को यह सम्मान मिल चुका है। 'अंधेरे
में सुलगती वर्णमाला' के लिए 1993 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार
मिला।
पातर को पाठकों की चिंता भी रही है। उन्होंने कहा था, "कभी
साहित्य के हलकों में बात चलती है कि लोग कविता से दूर जा रहे हैं। लोग
कविता से दूर जा रहे हैं या कविता लोगों से दूर जा रही है? मुझे लगता है
यदि कविता लोगों को अपने दिल में जगह देगी तो लोग भी जरूर कविता को अपने
दिल में जगह देंगे।"
और अंत में पातर की एक कविता...
उम्र के सूने होंगे रास्ते
रिश्तों का मौसम सर्द होगा
कोई कविता की पंक्ति होगी
गर और न कोई साथ होगा
उम्र की रात आधी बीत गई
दिल का दरवाजा किसने खटखटाया
कौन होगा यार इस वक्त
यूं ही तुम्हारा ख्याल होगा
न सही इंकलाब न ही सही
सब गमों का इलाज न ही सही
मगर कोई हल जनाब कोई जवाब
या कि सदा ही सवाल होगा।