Wednesday 2 December 2015

साम्प्रदायिकता की चुनौती का जवाब क्या है ?





- वीणा भाटिया


साम्प्रदायिकता के सवाल पर नरेंद्र मोदी सरकार का विरोध लगातार बढ़ता ही जा रहा है। साहित्यकारों द्वारा साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाने के बाद कलाकारों, फिल्म अभिनेताओं, वैज्ञानिकों और इतिहासकारों ने भी देश में साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ते जाने को लेकर अपना विरोध दर्ज कराया है। यही नहीं, जुबिन मेहता जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के संगीतकार ने भी कहा है कि भारत में जैसी स्थितियां बनती जा रही हैं, वह लोकतंत्र के अनुकूल नहीं हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी भारत में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर चिंता जताई गई है। यही नहीं, अर्थव्यवस्था को लेकर रेटिंग करने वाली मूडीज जैसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ने भी साफ कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर अपने सहयोगियों के आपत्तिजनक बयानों पर रोक नहीं लगाते हैं, तो आर्थिक विकास में अवरोध पैदा होगा। जैसी स्थितियां देश में बनती जा रही हैं, उनमें निवेश का खतरा कोई नहीं उठाना चाहेगा।



कुल मिलाकर, विकास के नारे पर आई मोदी सरकार ऐसे मामलों में उलझ कर रह गई है, जिनका विकास से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं है। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आते ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके संगठनों ने लव जिहाद’, ‘घर वापसी’, ‘धर्मान्तरणजैसे मुद्दे उठाने शुरू किए, जिससे समुदायों में वैमनस्य का भाव बढ़ा। फिलहाल, बीफ का मुद्दा जोर-शोर से उठाया गया। दादरी कांड के बाद भी यह मुद्दा अभी समाप्त नहीं हुआ है। संघ और संघ परिवार के लोगों, संतों-महंतों और साध्वियों के लागातार ऐसे बयान आ ही रहे हैं, जो माहौल को और भी बिगाड़ने वाले हैं। इससे अल्पसंख्यक समुदाय में भय पैदा होना स्वाभाविक है। खास बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने इन सवालों पर कुछ कहना जरूरी नहीं समझा और जब कहा तो यह कि इन सबके लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार नहीं है। जाहिर है, इससे हिंदुत्व के नाम पर आपत्तिजनक बयानबाजी करने वालों का ही मनोबल बढ़ेगा।



उल्लेखनीय है कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि अब देश में हिंदू राज की स्थापना हो गई। संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मोहन वैद्य ने कहा था कि संघ के लिए देश और हिंदुत्व एक है। मोहन वैद्य ही नहीं, स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी बयान दिया कि भारत में रहने वाले चाहे किसी भी धर्म और सम्प्रदाय के हों, सभी हिंदू हैं।



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की घोषित विचारधारा हिंदू राष्ट्रवाद है, तो क्या अब नरेंद्र मोदी के सत्ता में आ जाने के बाद भारत की पहचान हिंदुत्व से होगी? भूलना नहीं होगा कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ही उनकी सरकार में शामिल सभी प्रमुख मंत्री खुद को संघ से प्रतिबद्ध बताते रहे हैं। कई मंत्रियों ने मोदी का विरोध करने वालों को पाकिस्तान चले जाने की सलाह दी थी और अभी भी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की बात कहना संघ और हिंदुत्ववादी संगठनों के नेताओं का प्रिय मुहावरा बना हुआ है।



भूलना नहीं होगा कि राष्ट्रवाद का अभ्युदय ऐतिहासिक दृष्टि से पूरी तरह एक यूरोपीय परिघटना है और राष्ट्रीयताओं का अभ्युदय धार्मिक आग्रहों, पूर्वग्रहों और चर्च की सत्ता से टकरा कर ही हुआ था। भारतीय राष्ट्रवाद की खासियत रही है कि इसका विकास औपनिवेशिक शक्तियों से संघर्ष के दौरान हुआ और 1857 के गदर के बाद जब अंग्रेजों को लगा कि सिर्फ हिंसक दमन कारगर नहीं होगा तो उन्होंने फूट डालो और राज करोकी वह कुख्यात नीति अख्तियार कर ली जिसका अंजाम धार्मिक आधार पर द्विराष्ट्रवादके सिद्धांत और फिर आजादी के साथ ही मानव सभ्यता की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक देश विभाजन के रूप में सामने आया। अब सवाल यह है केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनेक छोटे-बड़े संगठन खुलकर हिंदुत्व की बात कर रहे हैं और इसे राष्ट्र का पर्याय बता रहे हैं, तो क्या खंड-खंड राष्ट्रवादके सिद्धांत को अमली जामा पहनाया जाएगा? अगर राष्ट्रवाद को इस तरह धर्म से जोड़ा गया तो देश को एक नहीं, अनेकानेक विभाजन के लिए तैयार रहना होगा।



बहरहाल, नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उभार अचानक हुई परिघटना नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक प्रक्रिया की परिणति है, जिसका विकल्प फिलहाल नजर नहीं आता। ये दरअसल दिखा देता है कि भारतीय गणतंत्र का धर्मनिरपेक्षतावाद किस कदर खोखला था। प्राय: सभी विद्वानों ने यह स्वीकार किया है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षतावाद सर्वधर्म समभावपर आधारित था, जबकि सेक्युलरिज्म का मतलब है कि राज्य का धार्मिक मामलों से कोई लेना-देना नहीं होगा और यह व्यक्तिगत आस्था एवं विश्वास की चीज होगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हो सकता भी नहीं था, क्योंकि साम्प्रदायिक आधार पर राष्ट्र के विभाजन को स्वीकार कर लिया गया था।



कांग्रेस ब्रिटिश सत्ता से संघर्ष और समझौते के मार्ग पर शुरू से ही चल रही थी। अगर धार्मिक आधार पर राष्ट्र का विभाजन हो गया और कांग्रेस समेत तमाम दलों ने इसे स्वीकार कर लिया तो महज संविधान में दर्ज कर लिए जाने की वजह से ही भारतीय गणतंत्र सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता था। हिंदू-मुस्लिम सिख-ईसाई आपसे में हैं भाई-भाई’, ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना’, ‘ईश्वर-अल्ला तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान’, धर्मनिरपेक्षता का मतलब सिर्फ यही बना रहा। चुनावी प्रक्रिया में वोटों को धर्म, जाति और सामुदायिक पहचान के आधार पर बांटा जाता रहा। धार्मिक संस्थाओं और प्रतिनिधियों को राजकीय संरक्षण प्राप्त होता रहा, उन्हें मान्यता दी जाती रही। फिर कूपमंडूकता और साम्प्रदायिक आधार पर घृणा का प्रचार करने वाले उग्र हिंदूवादियों को कैसे रोका जा सकता था, जिनकी जड़ें देश के राजनीतिक इतिहास में बहुत गहरी थीं।



वास्तव में धर्मनिरपेक्षतावाद काफी हद तक अल्पसंख्यकवाद होकर रह गया। यहां प्रो. हरबंस मुखिया की इस बात को नहीं भूला जा सकता कि बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता और अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों समान रूप से खतरनाक हैं। लेकिन इस बात को समझने की जरूरत किसे थी? कांग्रेस के साथ ही अन्य दलों ने भी वोटों की राजनीति में अल्पसंख्यकवाद का सहारा लिया। ऐसे में, हिंदूवादी ताकतें हावी हो गईं हैं तो हैरत की बात क्या है।


 

खास बात यह है कि फिलहाल हिंदू राष्ट्रकी सर्वसत्तावादी राजनीति को कोई चुनौती दरपेश नहीं है, क्योंकि अन्य तमाम दल भी किसी न किसी रूप में जाति और धर्म की ही राजनीति कर रहे हैं। सिर्फ भाजपा को साम्प्रदायिक और अन्य दलों को धर्मनिरपेक्ष मानना गलत होगा। दरअसल, भारतीय गणतंत्र के मूल में ही धर्मनिरपेक्षता नहीं थी। यह अलग बात है कि भारत धार्मिक राज्यनहीं रहा, पर राष्ट्रवाद के साथ धर्म का घालमेल शुरू से ही बना रहा। साम्प्रदायिकता कभी भी खुलकर सामने नहीं आती। प्रेमचंद के शब्दों में यह गीदड़ की तरह शेर की खाल ओढ़ कर आती है। फिर साम्प्रदायिकता का हमला इतने छुपे रूपों में होता है कि निशाना कौन किसे बना रहा है, यह साफ दिखता नहीं और इस क्रम में अल्पसंख्यक समुदायों को भारी वंचना का शिकार होना पड़ता है।