Monday 22 May 2017

दुनिया इन दिनों' में सरला माहेश्वरी से साक्षात्कार - वीणा भाटिया मुझे दक्षिणपंथ के रुझान ने विचलित किया है - सरला माहेश्वरी





सरला माहेश्वरी राजनीति, साहित्य और सांस्कृतिक आन्दोलनों के क्षेत्र में काफी जानी-मानी हैं। दो बार राज्यसभा सदस्य रह चुकीं सरला जी लगातार मेहनतकश जनता के संघर्षों से जुड़ी रहीं। साथ ही समाज, राजनीति, संस्कृति आदि से जुड़े सवालों पर लगातार लिखती रही हैं। इधर कुछ वर्षों से सरला जी लगातार कविताएँ लिख रही हैं। ये कविताएँ सोशल मीडिया पर भी आती हैं। पिछले दो वर्षों में इनकी कविताओं के तीन संकलन प्रकाशित हो चुके हैं – ‘आसामान के घर की खुली खिड़कियाँ’, ‘तुम्हें सोने नहीं देगी’ और इस साल आई ‘लिखने दो’। इसके अलावा इनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें प्रमुख हैं – नारी प्रश्न, विकास और पर्यावरण के प्रश्न, आर्थिक प्रश्नों पर, नई आर्थिक नीति पर, मीडिया पर, समान नागरिक संहिता, महंगाई और उपभोक्ता संरक्षण आदि। अग्निबीज डिरोजियो, शहीदे आजम भगत सिंह, खेतू बागदी औक गोपाल कहार (अनूदित नाटक), जूलियल सीजर के अंतिम दिन (अनूदित नाटक) प्रमुख किताबें हैं। इन्होंने ज्योति बसु पर किताब का संपादन किया है और हवाला घोटाला-शेयर घोटाला जैसे विषयों पर भी लिखा है। हाल ही में वीणा भाटिया ने इनसे कई मुद्दों पर बातचीत की। प्रस्तुत हैं महत्त्वपूर्ण अंश।
1. आजकल आप क्या पढ़ रही हैं? पढ़ने के लिए चयन करने का आपका तरीका क्या है?
सरला माहेश्वरी : पढ़ने में चयन करने की ज़रूरत तभी पड़ती है, जब आप अपने पुस्तकालय से दूर जा रहे हों, वरना जब घर में हों तो आपके सामने अपनी पसंदीदा किताबों का पूरा संसार है। जब जो मन चाहा बस खींचकर वही किताब निकाल लो। हाँ, कभी एक किताब नहीं, एक साथ कई किताबें चलती रहती हैं। चूँकि काम भी विभिन्न विषयों पर चलता रहता है तो किताबें भी उसी तरह बदलती रहती हैं। वैसे रवीन्द्रनाथ पर काफी दिनों से काम चल रहा है। अब तक तीन सौ से ज़्यादा पृष्ठ लिखे जा चुके हैं। लेकिन महासागर है। सोचा मैं और अरुण साथ मिलकर करते हैं। देखें क्या होता है।
2. आपकी कविताएँ एकदम ही भिन्न किस्म की हैं। बहुत ही ठोस धरातल पर लिखती हैं आप, न अमूर्तन, न विशेष बिंब-विधान, जो कहना होता है, साफ़-साफ़ कहती हैं और बहुत ही संप्रेषणीय व प्रभावोत्पादक तरीके से। कविता लिखने की प्रेरणा आपको कैसे मिलती है?
सरला माहेश्वरी : कविता लिखने की प्रेरणा का जहाँ तक सवाल है, इतना ही कहना चाहूँगी कि एक राजनीतिक कार्यकर्ता, एक अख़बार में रोज लिखना, विभिन्न विषयों पर वक्तव्य, आलेख आदि ...तो लिखना हमेशा चलता ही रहा। कविता का मामला ऐसा है कि परिवेश ही कवितामय रहा। पिता इतने बड़े कवि-गीतकार रहे। उनके गीतों को हमेशा गुनगुनाते, दूसरे कवियों को भी हमेशा सुनते-सुनाते रहे। तो कविता तो हमेशा जीवन से जुड़ी रही। कोई भाषण, कोई लेख बिना कविता के कभी पूरा ही नहीं होता था। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी बिना कविता के मेरी बात पूरी नहीं होती थी। एक बार इसी तरह के एक मंच पर जब मैंने मुक्तिबोध को उद्धृत किया तो लोकसभा के महासचिव ने ख़ुश होते हुए कहा कि आप तो मुक्तिबोध को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी ले आईं।
जहाँ तक मेरे कविता लिखने का सवाल है तो इस विषय में इतना ही कहना चाहूँगी कि ख़ुद मुझे भी पता नहीं चला। पहले जो कविता कभी-कभार किसी विशेष ज़रूरत के लिए लिखी जाती थी, अब वही आज हमारे लिए अपनी बात को व्यक्त करने का मुख्य माध्यम बन गयी है। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि कविता को अपनी अभिव्यक्ति का एक प्रमुख माध्यम बना कर हमने उसे अपने सामाजिक सरोकारों का अभिन्न अंग बना लिया है।
3. कवि, कविता की भाषा और आलोचक के विषय में आपकी क्या मान्यता है?
सरला माहेश्वरी : आपके तीसरे प्रश्न का कुछ जवाब तो आपको दूसरे प्रश्न में ही मिल गया होगा। कविता की भाषा का जहाँ तक प्रश्न है, ओक्तावियो पॉज की पंक्ति का स्मरण हो आता है, 'कविता पढ़ना आंखों से उसे सुनना होता है। कविता सुनना आंखों से उसे देखना होता है।' कविता जो पाठक के दिल और दिमाग़ को झकझोरे, उससे बात कर सके।
जहाँ तक आलोचक का सवाल है, मैं तो यही मानती हूँ कि आलोचक भी रचनाकार ही है। कविता या किसी भी रचना का असली आलोचक तो पाठक ही है। हाँ, कभी-कभी आलोचक रचना से इतर किन्हीं अन्य दुराग्रहों से संचालित हो सकता है और ऐसा सिर्फ आलोचक के साथ ही नहीं, रचनाकार के साथ भी हो सकता है। ऐसी दुर्घटनाएँ अक्सर घटती हैं। और इसीलिए हर बार जब हम पाठ का पुनर्पाठ करते हैं तो बात बदल-बदल जाती है। वैसे देखा जाए तो सही आलोचना रचनाकार को और उसी क्रम में आलोचक को भी संशोधित-संवर्द्धित करती है।
4. कविता नैसर्गिक प्रतिभा से आती है या कवि के निजी जीवन और सामाजिक आलोड़नों से?
सरला माहेश्वरी : कविता का नैसर्गिकता से कोई संबंध है या नहीं ? अब मार्केस की तरह इतना तो कह सकती हूँ कि लिखना शायद कहीं न कहीं मेरे डीएनए से जुड़ा था। लेकिन ये भी तो एक बड़ा सच है कि आप के अंदर कोई बीज तो हो सकता है, लेकिन उसे फलने-फूलने का उपयुक्त वातावरण न मिले तो बीज नष्ट हो जाता है। कुम्हार के बच्चे को भी माटी को चाक पर चलाना सीखना पड़ता है। उसके साथ अपनी जिंदगी के तारों को जोड़ना पड़ता है।और फिर बहुत कुछ जीवन की परिस्थितियाँ तय करती हैं।
कई बार सोचती हूं - मुक्तिबोध कहते हैं -‘‘कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ /वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता।’’
‘कविता में कहने की आदत नहीं’- क्या तात्पर्य है इस बात का ? क्या कविता का ढांचा हमसे कुछ और ही बुलवाता है, जो हमारे मन का नहीं होता ! सीधी-सच्ची बात क्या कविता में नहीं कही जाती ! या ऐसा जता कर भी वे कुछ और ही गूढ़ बात कहना चाहते हैं ! क्या वे कह रहे हैं कि जो बात इतनी सर्वज्ञात है, फिर भी मजबूरीवश उसे ही कहना पड़ रहा है। सर्वज्ञात को ज्ञात कराने की व्यर्थता की पीड़ा को जाहिर कर रहे हैं ! न चाहते हुए भी कहने, दोहराते जाने जाने की मजबूरी !
5. आपकी दृष्टि में साहित्य के मूल सरोकार क्या हैं या होने चाहिए?
सरला माहेश्वरी : साहित्य के मूल सरोकार जीवन के ही सरोकार हैं। मीर ने लिखा था -
‘‘क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता
और चुप भी रहा नहीं जाता।’’
आज हम जिन दबावों में हैं, हम मजबूर हैं, सदियों से कही जा रही राम-रहीम की बातों को ही दोहराने के लिए। जो बिल्कुल प्रत्यक्ष है, उसे ही कविता में भी बार-बार बयान करने के लिए। अपनी सत्ता को ही शायद बार-बार टटोल कर देख लेने के लिए !
यह समय चुप नहीं रहने दे रहा है। रोज झकझोरता है, रातों की नींद उड़ा देता है। लिखना जीने की शर्त-सा बन गया है। स्वतंत्रता के अहसास को जिंदा रखना है तो लिखना ही होगा, चुप रहना, मतलब है खुद से अपने को गुलामी की जंजीरों से जकड़ लेना है।
6. कहा जाता है कि साहित्यकारों का राजनीति में जाना फलता-फूलता नहीं है। आपके बारे में यह सच नहीं है फिर भी, फिर भी बताएँ कि साहित्यकारों के राजनीति में आने के बारे में आप क्या सोचती हैं?
सरला माहेश्वरी : साहित्यकार और राजनीति दोनों ही एक तरह से पूरा वक्ती कार्यकर्ता की माँग करते हैं। दोनों का संबंध ही व्यापक सामाजिक सरोकारों से है, हाँ काम का तरीक़ा अलग है। लेकिन आज की राजनीति का जो रूप है, वहाँ तो ये दोनों विपरीत ध्रुवों पर खड़े नज़र आते हैं। जहाँ तक मेरा सवाल है तो इस संबंध में मैं कुछ भाग्यशाली रही हूँ कि मेरा पारिवारिक परिवेश राजनीतिक और साहित्यिक रहा। राजनीति में रहते हुए भी हमेशा यही ख़याल रहता कि अपने सरोकारों को किस तरह बेहतर ढंग से आम लोगों तक पहुँचाएँ, चाहे माध्यम लेखनी हो या वाणी। हाँ, राजनीति आपके ऊपर बहुत से अनचाहे बोझ डाल देती है, मेरा मतलब है आपकी निजता को वहाँ बहुत कम समय मिलता है। और साहित्य को निजता की बहुत ज़रूरत होती है। बार-बार मुझे ये चीज़ कचोटती थी। अपनी इच्छानुसार चीज़ों को पढ़ने का वक़्त नहीं और अनचाही चीज़ों को साधने की मजबूरी। फिर भी ज्ञान आखिर ज्ञान ही होता है। इस बहुविध अध्ययन का मुझे भरपूर लाभ मिला है। फिर भी काफी भाग-दौड़ भी रहती थी। पूरे देश में पार्टी के वक़्ता के रूप में आज यहाँ कल वहाँ। पता नहीं, कुछ चीज़ें आपके वश में नहीं होती। बचपन में कहाँ से साहित्य के बदले विज्ञान पढ़ना पड़ा और तब अपनी बड़ी बहन को साहित्य को विषय के तौर पर पढ़ते देखकर ईर्ष्या होती।
7. आप काफी समय से लिखती रही हैं। अपनी शुरुआती रचनाएँ आपको कैसी लगती हैं? क्या उनके बारे में कोई आत्म-विश्लेषण करना चाहेंगी?
सरला माहेश्वरी : बहुत अच्छा सवाल है। लिखने का सिलसिला तो काफी अर्से से चल रहा है। लेकिन पहले अधिकांशत: राजनीतिक और पत्रकारितामूलक लेखन ही हुआ करता था। शोधपरक कामों में मैंने स्त्रियों के बारे में कुछ काम किया जो मेरी किताब ‘नारी प्रश्न’ में संकलित है। इसी प्रकार, एक शोधमूलक पुस्तिक लिखी ‘समान नागरिक संहिता’ पर। और लगातार पार्टी के अखबार में लिखा करती थी। लेकिन उन दिनों कविताएं बहुत ही कम लिखी। बीच-बीच में, खास-खास मौकों पर ही मूलत: राजनीतिक कविताएं लिखा करती थी। आज भी जब उन्हें देखती हूं तो अच्छा ही लगता है। वह मेरी मूल भूमि है। जहां तक उनको लेकर किसी आत्म-विश्लेषण का सवाल है, मेरा मानना है कि हर लेखक कभी न कभी अपने किए कामों पर सोचता ही है। यह बहुत स्वाभाविक है। जैसे हर पाठ का पुनर्पाठ होता है, हर रचना भी चाहती है कि उसे भी कुछ सहला दिया जाए। और पुरानी ही क्यों, नई रचना भी चाहती है। जिंदगी की तरह रचना भी कोई शिलालेख नहीं है। लेकिन हर रचना का अपना एक काल-संदर्भ होता है। इसलिए उनमें किसी प्रकार की छेड़-छाड़ की मुझे कोई ज्यादा जरूरत महसूस नहीं होती है।
8. आज साहित्य में नारीवाद का स्वर अधिक मुखरित हो रहा है। क्या आप नारीवाद का समर्थन करती हैं, यदि करती हैं तो किस रूप में?
सरला माहेश्वरी : साहित्य में ही नहीं, आज जीवन के हर क्षेत्र में नारी विमर्श की प्रमुखता से कोई इनकार नहीं कर सकता है। जैसा कि मैंने पहले ही जिक्र किया है, ‘नारी प्रश्न’ पर मेरी किताब है जिसमें नारीवाद की विभिन्न धाराओं पर व्यापक चर्चा की गयी है। हमें समाज के व्यापक जनतंत्रीकरण के साथ ही नारीवाद के संदर्भ को समझना चाहिए। जहाँ तक नारी मुक्ति का प्रश्न है, इसे पूरे समाज की मुक्ति के बिना तो हासिल किया ही नहीं जा सकता, और ख़ुद पुरुष तथा स्त्री, दोनों को पितृसत्ता के संस्कारों से मुक्त होने की लड़ाई को लगातार लड़ते रहना है। इसके बिना कभी भी इतिहास के केंद्र में स्वातंत्र्य के भाव को प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकेगा।
9.इस दौर में आत्मकथा-लेखन की प्रवृत्ति बढ़ी है और कई कारणों से आत्मकथाएँ चर्चित भी हुई हैं। इस विधा की सीमा और शक्ति के बारे में आपकी क्या राय है? क्या आपने आत्मकथा लिखने के बारे में सोचा है?
सरला माहेश्वरी : जिनके पास अपने जीवन के बारे में कहने-बताने के लिये काफी कुछ हो, उन्हें निश्चित तौर पर आत्मकथाएँ लिखनी चाहिए। इस दिशा में कलम उठाने के पहले आदमी में अपनी उपलब्धियों के बारे में एक गहरे आत्म-बोध की जरूरत होती है। मैं नहीं सोचती कि हमने ऐसी कोई उपलब्धि की है, जिसे बताने के लिये आत्मकथा लिखी जाए। अभी तक के अपने किए-धरे को मैं यथेष्ट नहीं मानती कि उसके बयान से किसी को कोई खास बात बता सकूं। दो-दो बार सांसद रहने पर भी मुझमें कुछ खास होने का बोध कभी भी पैदा नहीं हुआ और आज लगता है कि शायद इसीलिए अपनी मनुष्यता को कुछ हद तक बचा कर रख पाई हूँ।
10. इधर कुछ आत्मकथाएँ पढ़ी होंगी आपने। उनके बारे में आपकी क्या राय है?
सरला माहेश्वरी : आत्मकथाएँ कई आई हैं, पढ़ी भी हैं। आत्मकथा लिखने का काम मुझे लगता है कि सचमुच यह एक आग का दरिया है और डूब के जाना है जैसा है। इसके अलावा साहित्य मात्र ही व्यापक जीवन की एक आत्मकथा ही है। इस विशाल संसार में आपकी निजी अस्मिता अगर कोई मायने न रखे तो इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। इसके अलावा, यह भी समान रूप से सच है कि आदमी के आत्म-संसार की सच्चाई भी कम विकट नहीं है। यह पूरी तरह से आपकी रुचि और तैयारियों का विषय है। इस पर किसी भी प्रकार की मेरी निश्चयात्मक राय नहीं हो सकती है। सारी दुनिया के कितने लोगों की आत्मकथाओं से हम हमेशा कितना अधिक सीखते रहे हैं। गोर्की का ‘अपने विश्वविद्यालय’ उनकी आत्मकथा ही है। हर आत्मकथा में लेखक सिर्फ खुद को नहीं, अपने पूरे परिवेश को लिखता है। और उन पर भी उसी प्रकार विचार किया जा सकता है, जैसे बाकी साहित्य की विधाओं पर होता है।
11. कविता के भविष्य पर किस तरह के दुष्प्रभावों की संभावनाएँ देखती हैं आप?
सरला माहेश्वरी : मुझे ये सारी बातें, कविता की वापसी और कहानी की वापसी की तरह की बातों में विशेष तत्व नहीं लगता है। समय के साथ रचना के स्तर में नाना प्रकार के परिवर्तन आते हैं, आ सकते हैं। लेकिन कविता के ढांचे में जिस प्रकार वस्तु संसार की संगति में आदमी के अंतर के सच के अनंत आयाम जाहिर होते हैं, आदमी उसे कभी त्याग नहीं सकता। कविता के अंत की बात को इसीलिए मैं कभी-कभी मनुष्यता के अंत की तरह से देखती हूं। आदमी के चैतन्य में ज्ञान-तत्व और क्रिया-तत्व, दोनों का जो गुंफित रूप निहित होता है, उसकी अभिव्यक्ति ही मुझे कविता लगती है। इसीलिए कविता के क्रियात्मक पहलू की मैं कभी उपेक्षा नहीं कर सकती। जब तक आदमी जिंदा है, कविता जिंदा रहेगी।
12. इंटरनेट और मोबाइल के बढ़ते प्रभाव का असर क्या साहित्य पर पड़ रहा है, यह किस रूप में है?
इसमें शक नहीं कि आज का युग संस्कृति के माध्यमीकरण का युग माना जाता है। हमारे सारे सामाजिक और निजी व्यवहार पर इसका निश्चित असर है। इसके रचनात्मक साहित्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में भी काफी चर्चाएं हो रही है। लेकिन अभी तक तो यही लग रहा है कि इसने सूचनाओं की प्राप्ति को सुगम बना कर आदमी की ज्ञान चर्चा के स्तर को ऊंचा किया है। इससे कल्पनाशीलता को भी उड़ान की नई संभावनाएं मिलेंगी। इससे कम से कम बहुत ही यांत्रिक और ढर्रेवार किस्म के लेखन का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। अन्यथा सामान्य तौर पर रचनाशीलता पर मैं इससे कोई खतरा महसूस नहीं करती हूँ।
13. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घटने वाली किसी ऐसी घटना के बारे में बताइए, जिसने आपको बेहद विचलित किया हो।
सरला माहेश्वरी : अभी तो हमारे देश में मोदी के सत्ता में आने के बाद के घटनाक्रम और सारी दुनिया में नजर आ रहे दक्षिणपंथ की ओर रुझान ने निश्चित तौर पर विचलित किया है, क्योंकि इससे एक ऐसे विश्वयुद्ध का खतरा तक पैदा हो गया है जो मानव मात्र के अस्तित्व के लिये घातक साबित हो जाए। नाजीवाद, फासीवाद और द्वितीय विश्वयुद्ध के भयंकर अनुभवों के इतिहास को जानने के बाद किसी भी प्रकार के युद्धोन्माद से मैं बहुत विचलित होती हूँ।
14. एक प्रोपेगैंडा है कि हिंदी हिंदुओं की ज़बान है और उर्दू मुसलामानों की, क्या वास्तव में जनमानस में यह बात है, क्या नज़रिया है आपका?
सरला माहेश्वरी : एक ही सरजमीं से पैदा होने वाली इन दो भाषाओं को परस्पर विरोध में खड़ा करना एक सुचिंतित राजनीति है। हिंदी हिंदुओं की और उर्दू मुसलमानों की बात जरा भी सच नहीं है। इस मामले में हम लोग अपने को प्रेमचंद का वंशज कहते हैं। इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि अंग्रेजों के शासन काल तक इरान हमारा एक पड़ोसी मुल्क हुआ करता था। अरबी-फारसी की दुनिया से भारत के जीवंत संबंध हजारों साल पुराने हैं। ऐसे में, अरबी फारसी के शब्दों का हमारे यहां बहुतायत में प्रयोग होना किसी भी मायने में अस्वाभाविक नहीं कहा जाएगा। जैसे संस्कृत और अपभ्रंश के स्रोत से आए शब्दों को हम स्वाभाविक तौर अपनाते हैं, वैसे ही हमारे यहां अरबी-फारसी के शब्दों को भी अपनाने की समृद्ध परंपरा रही है। लेकिन इधर के सालों में, राष्ट्रवाद के इस नये दौर में, जब लोग कहते हैं, दुनिया छोटी हुई है, हम तो देख रहे हैं, हमारी सीमाएं कहीं ज्यादा सिकुड़ गई है। और वैसे आज के भारत की यह सच्चाई है कि मुसलमान हिंदी को ही अपनी भाषा मानते हैं और हिंदू देवनागरी में लिखी गई उर्दू को खूब अपनाते हैं। हिंदी फिल्मों की भाषा की लोकप्रियता भी इसी बात की गवाह है।
15. क्या आप किसी राष्ट्रीय नेता के प्रति आस्थाशील रही हैं?
सरला माहेश्वरी : नहीं, आज भी यदि किसी राष्ट्रीय नेता को आदर्श के रूप में देखते हैं तो वे गांधीजी ही नजर आते हैं। कई कम्युनिस्ट नेताओं, मसलन बी टी रणदिवे, ईएमएस नंबुदिरिपाद, ए के गोपालन आदि ने प्रभावित जरूर किया। उन सबके प्रति मन में गहरी श्रद्धा है। फिर भी, जिसमें अपनी सारी संभावनाओं को पूर्ण रूप में देख सकूँ, वैसा नहीं है। भारत में उस मामले में गांधीजी अकेले अलग नजर आते हैं। नेहरू जी के प्रति भी अगाध आस्था जगती है।
16. आप राज्यसभा में रही हैं। चुनावों में जो हिंदी काम में आती है, संसद में क्यों नहीं आती? विश्व हिंदी सम्मेलनों के बारे में क्या कहना चाहेंगी आप?
सरला माहेश्वरी : संसद में हमेशा हिंदी में ही बोलती रही और तमाम लोग उसे पसंद करते। उन्हें आश्चर्य भी होता कि ये हर विषय को हिंदी में कैसे व्यक्त कर पाती हैं। मुझे बहुत अटपटा लगता था कि हिंदी के विशेषज्ञ अक्सर कई विषयों पर अंग्रेज़ी में अपनी बात रखते थे। उन्हें लगता था कि वे अंग्रेज़ी में ही अपनी बात को अच्छी तरह पहुँचा सकते हैं, जबकि मुझे ऐसा नहीं लगता था। और ऐसा भी होता था कि वे मुझसे आकर कहते कि अरे इस विषय को आपने इतनी गंभीरता के साथ हिंदी में रखा, मतलब हिंदी में गंभीर और गूढ़ बातें सरलता से कही जा सकती है, इस पर उन्हें विश्वास नहीं था, या अभ्यास नहीं था।
17. वर्तमान हालात में देश में कैसे राजनीतिक विकल्प की संभावना आप महसूस करती हैं?
सरला माहेश्वरी : आज तो एक नई वैकल्पिक राजनीति की संभावनाएं सबसे ज्यादा उज्ज्वल है, क्योंकि इन सत्तर सालों में अब देश की सभी राजनीतिक पार्टियों का मूल सच सबके सामने पूरी तरह से आ चुका है। अब राजनीति पुराने ढर्रे पर आगे ज्यादा नहीं चल पाएगी। पार्टियों के नाम भले न बदलें, लेकिन उनके कामों की दिशा को पूरी तरह से बदलना ही होगा।
18. सांस्कृतिक स्तर पर आज हमारे सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं? नये सांस्कृतिक आंदोलन की क्या कुछ संभावनाएँ बन सकती हैं? 
सरला माहेश्वरी : कुछ लोग है जिन्होंने अतीत की पूजा और उसके गौरवगान को ही संस्कृति का पर्याय मान लिया है। उनके लिए संस्कृति एक पवित्र, सनातन और शाश्वत किस्म की कोई ऐसी वस्तु है जो ईश्वरीय सत्य की तरह अपरिवर्तनीय है। ऐसे लोग मनुष्य रूपी तुच्छ जीव को इसमें हस्तक्षेप की कोई अनुमति नहीं देना चाहते। संस्कृति के क्षेत्र के ये पहरेदार अभिशप्त हैं जड़ीभूत हो कर पूरी तरह से अप्रासंगिक होने के लिए। सामयिक तौर पर तत्ववाद की किसी लहर के चलते ऐसे अतीतजीवी प्रेत-पूजकों को कुछ मौलिक सुखों का लाभ जरूर मिल सकता है। लेकिन परिवर्तनशील जीवन की अबाध धारा में इन्हें प्रासंगिकता या मूल्यवत्ता का प्रमाणपत्र कभी नहीं मिल सकता। इसलिए हम खुद को ऐसे अतीतोन्मुखी संस्कृति के ठेकेदारों की संस्कृति के बारे में खोखली और पवित्र किस्म की अवधारणाओं से कोसों दूर रखते हैं।
19. मैं चाहूँगी कि हरीश भादानी जी के साथ अपने कुछ निजी अनुभवों को साझा करें।
सरला माहेश्वरी : जहां तक पिता जी का संबंध है, हम उनके प्रभाव से कभी मुक्त नहीं हो सकते। उन पर मेरा एक लेख है - ‘मेरे पिता’। उसमें एक जगह पर मैंने लिखा है - ‘‘घर से आमतौर पर अनुपस्थित रहने वाले अपने पिता को घर के बजाय बाहर के विराट से ही ज्यादा जाना। कभी-कभार जब पिता के साथ बाहर, शहर में निकलने का मौका मिलता तो बस यही देखते कि उनसे मिलने वाले लोग कदम-कदम पर उन्हें रोक कर दुआ-सलाम करते; घर से बाजार तक की 10-15 मिनट की दूरी हम कभी आध घंटे तो कभी 45 मिनट में तय करते हुए बाजार तक पहुँचते जहां से हमें तांगा लेना होता था। हम बहनें उनके पीछे चलती हुई यह सब देखती रहतीं। तांगे वाले भी उन्हें देखते ही मनुहार करते और वे बिना कुछ पूछे तांगे पर सवार होकर उनसे खैरियत पूछते हुए बतियाते रहते। मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी किसी तांगे वाले से उन्होंने दाम ठहराये हों, हमेशा कुछ ज्यादा ही दाम देकर उतर पड़ते। उनके साथ कभी-कभार बाहर निकलने और घर में उनके बंधु-बांधवों के अनवरत आगमन ने हमें इतना जरूर समझा दिया था कि हमारे पिता एक आम-फहम इंसान नहीं हैं, वे एक बड़े आदमी हैं जिनकी लोग इतनी इज्जत करते हैं।’’
ये हमारे बचपन की यादें हैं। बाद के दिनों में तो उन्हें हमेशा अपने साथ ही पाया था।
20. एक निजी सवाल। ऐसा कोई सुख, शौक, पश्चाताप जिसकी याद अक्सर आकर अभी भी दस्तक देती हो।
सरला माहेश्वरी : मुझे पश्चाताप शायद किसी चीज का नहीं है। अपनी शर्तों पर ही मैंने अपना जीवन जिया है। दुख की वह घड़ी जरूर सबसे अधिक सताती है जब मुझे पता चला था कि मुझे कैंसर है। जब एम्स में कराये गये परीक्षण की खबर मेरे पास आई थी, उस समय मैं अकेली, श्रीनगर में संसदीय राजभाषा कमेटी के कार्यक्रम में थी। निश्चित तौर पर कैंसर और उसके इलाज से गुजरने ने मेरे जीवन को बदल दिया। आज मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं, लेकिन इन दस सालों में बहुत सारी चीज सुदूर अतीत की बन कर रह गई है। उस लिहाज से मेरा उस भाग-दौड़ और नाम-गाम के जीवन के प्रति कोई मोह नहीं रह गया है।
21. लेखन और सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में अरुण माहेश्वरी जी के साथ का लाभ आपको किन रूपों में मिला?
सरला माहेश्वरी : अरुण मेरे जीवन में एक अनिवार्य उपस्थिति की तरह है। अपने संसदीय जीवन के दिनों में भी दिल्ली में वह मेरे साथ ही रहता था तो कुछ साथी मजाक भी किया करते थे कि ये दोनों काया और छाया की भांति है और हमें कभी भी ऐसे मजाक बुरे नहीं लगे। बल्कि हमने इसका सुख ही लिया। इससे ज्यादा और क्या कहूं।