Wednesday 3 June 2015

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

- त्रिलोचन शास्त्री



चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूं वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है :
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं

चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है : गायें-भैंसे रखता है
चम्पा चौपायों के लेकर
चरवाही करने जाती है

चम्पा अच्छी है
चंचल है
नटखट भी है
कभी कभी ऊधम करती है
कभी कभी वह क़लम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूं
पाता हूं – अब क़ाग़ज गायब
परेशान फिर हो जाता हूं

चम्पा कहती है :
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुन कर मैं हंस देता हूं
फिर चम्पा चुप हो जाती है

उस दिन चम्पा आई, मैंने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है –
सब जन पढ़ना-लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढ़ूंगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ूंगी

मैंने कहा कि चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम संग साथ रह चला जायगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे संदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!

चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करूंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता मैं कभी न जाने दूंगी
कलकत्ते पर बजर गिरे।