Thursday 16 August 2012

वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं -फैज़ अहमद फैज़ की गज़ल






फैज़ अहमद फैज़ की गज़ल-


ये दाग दाग उजाला, ये शब-गजीदा सहर,

वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर

चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं

फ़लक के दश्त में तारों कि आखरी मंजिल


कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल

कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ए-गम-ऐ-दिल

जवां लहू की पुर-असरार शाहराहों से

चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े

दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख्‍वाब-गाहों से

पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे


बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख-ए-सहर की लगन

बहुत करीं था हसीना-ए-नूर का का दामन

सुबुक सुबुक थी तमन्ना , दबी दबी थी थकन


सुना है हो भी चुका है फिराक-ए-जुल्मत-ए-नूर

सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंजिल-ओ-गाम


बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर

निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अजाब-ए-हिज़र-ऐ-हराम

जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन


किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं

कहाँ से आई निगार-ए-सबा , किधर को गई

अभी चिराग-ए-सर-ए-राह को कुछ ख़बर ही नहीं


अभी गरानी-ए-शब में कमी नहीं आई

नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई

चले चलो की वो मंजिल अभी नहीं आई

- फैज़ अहमद फैज़.